
मुरैया गांव में अंतिम संस्कार बना बेबसी का प्रतीक: विकास के दावों को धो डाला बारिश और कीचड़ ने
रिपोर्ट: बुन्देली टाइम्स, जिला दतिया (मध्य प्रदेश)
प्रकाशन तिथि: जून 2025
मध्य प्रदेश के दतिया जिले के एक छोटे से गांव मुरैया से सामने आई एक घटना ने न केवल सामाजिक संवेदना को झकझोर कर रख दिया है, बल्कि सरकार और प्रशासन के दावों पर भी बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। यहां एक महिला की मृत्यु के बाद जब अंतिम संस्कार की बारी आई, तो सामने आया वह कड़वा सच, जो देश के विकास की चमकदार तस्वीरों के पीछे छुपा हुआ है।
बरसात, कीचड़ और पॉलिथीन की चिता
मुरैया गांव की एक महिला का निधन हुआ था। यह तो एक स्वाभाविक घटना थी, लेकिन उसके बाद जो हुआ वह समाज और व्यवस्था पर करारा तमाचा है। बारिश हो रही थी, चारों ओर कीचड़ था, और गांव में कोई श्मशान भूमि, मुक्तिधाम या पक्का अंतिम संस्कार स्थल मौजूद नहीं था। ग्रामीणों के पास कोई विकल्प नहीं था।
उन्होंने मिलकर एक बरसाती पॉलिथीन का तंबू तैयार किया और कीचड़ से भरी जमीन पर उस महिला का अंतिम संस्कार किया। लकड़ियाँ भीग न जाएं, इसलिए पॉलिथीन के नीचे चिता सजाई गई। एक तरफ पवित्र अग्नि, दूसरी ओर कीचड़ और पानी के छींटे। यह दृश्य देखने वालों की आंखें नम कर गया।
वायरल वीडियो ने खोली पोल
इस दृश्य का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है। वीडियो में साफ देखा जा सकता है कि ग्रामीण पानी और कीचड़ से जूझते हुए शव का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। वीडियो सामने आते ही लोगों की नाराजगी फूट पड़ी। हजारों लोगों ने वीडियो पर कमेंट करते हुए सवाल उठाया:
“क्या यही है विकास का असली चेहरा?”
“क्या मौत के बाद भी इंसान को इज्ज़त से विदाई नहीं मिल सकती?”
मुरैया गांव की जमीनी सच्चाई
दतिया जिले का मुरैया गांव प्रशासनिक फाइलों में एक सामान्य राजस्व गांव है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर यहां की स्थिति चिंताजनक है।
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गांव में न कोई पक्का श्मशान घाट है
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न कोई मुक्तिधाम की सुविधा उपलब्ध है
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रास्ते की स्थिति भी बरसात में इतनी खराब हो जाती है कि शव यात्रा निकालना भी एक चुनौती बन जाती है
स्थानीय लोगों का कहना है कि आजादी के 75 वर्षों के बाद भी उनके गांव में अंतिम संस्कार के लिए ढका हुआ पक्का स्थान नहीं बन पाया, जबकि हर चुनाव में यह वादा जरूर किया गया।
ग्रामीण बोले – “चुनाव से पहले हम जरूरी, बाद में बेकार!”
बुन्देली टाइम्स से बात करते हुए गांव के बुजुर्ग रामदयाल कुशवाहा (उम्र 68 वर्ष) ने कहा:
“जब भी चुनाव आते हैं, नेता जी आते हैं और कहते हैं – ‘श्मशान बनवाएंगे’, ‘सड़क बनाएंगे’, ‘पानी देंगे’। लेकिन जैसे ही वोट ले लेते हैं, फिर पांच साल तक कोई नहीं दिखता।”
एक महिला, संगीता बाई, जो अंतिम संस्कार में मौजूद थीं, ने कहा:
“आज जो हुआ वह किसी के साथ नहीं होना चाहिए। चिता जल रही थी और ऊपर से पानी टपक रहा था। अगर पक्का मुक्तिधाम होता तो ये दिन नहीं देखना पड़ता।”
सवाल सिर्फ एक गांव का नहीं
यह घटना केवल मुरैया गांव की नहीं है, बल्कि यह भारत के हजारों गांवों की एक साझा व्यथा है। जहां स्कूल की छतें टूट चुकी हैं, अस्पताल तो हैं लेकिन डॉक्टर नहीं, सड़कों में गड्ढे हैं और श्मशान घाट तक नसीब नहीं।
जब चुनाव आते हैं तो नेता स्मार्ट गांव, डिजिटल पंचायत, गांव-गांव वाई-फाई जैसे वादे करते हैं। लेकिन जिन समस्याओं का सीधा असर जीवन और मृत्यु से जुड़ा होता है — वे अक्सर उपेक्षित रह जाती हैं।
सरकारी योजनाएं – कहां है उनका असर?
मध्य प्रदेश में सरकार ने मुक्तिधाम योजना, मुख्यमंत्री ग्राम सड़क योजना, और ग्रामोदय से भारत उदय जैसे कार्यक्रम शुरू किए हैं। इन योजनाओं के तहत हर गांव को बुनियादी ढांचे से जोड़ने का दावा किया गया है।
लेकिन मुरैया जैसे गांव, जो अब तक इन योजनाओं की छाया तक नहीं देख पाए, यह सवाल उठाते हैं:
“क्या योजनाएं केवल शहरी पंचायतों तक सीमित हैं?”
“क्या छोटे गांवों का विकास सिर्फ कागज़ पर होता है?”
अब मांग हो रही है – “मुक्तिधाम हर गांव में जरूरी है”
वीडियो के वायरल होने के बाद ग्रामीणों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और कई स्थानीय संगठनों ने प्रशासन से मांग की है कि:
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मुरैया गांव में तुरंत पक्का मुक्तिधाम बनाया जाए।
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हर गांव की अंतिम संस्कार सुविधाओं की स्थिति की जांच की जाए।
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जो गांव मुक्तिधाम से वंचित हैं, उन्हें प्राथमिकता के आधार पर बजट आवंटित किया जाए।
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मानव गरिमा को ध्यान में रखते हुए अंतिम संस्कार स्थलों की न्यूनतम मानक नीति बनाई जाए।
सामाजिक सम्मान का सवाल
धार्मिक मान्यताओं से परे, अंतिम संस्कार किसी भी व्यक्ति की जीवन यात्रा की अंतिम औपचारिकता है। यह केवल धार्मिक कार्य नहीं, बल्कि समाज द्वारा उस व्यक्ति को दी गई अंतिम विदाई होती है। जब कोई व्यक्ति जीवन भर समाज को कुछ न कुछ देता है, तो उसके अंतिम क्षणों में उसे सम्मान और गरिमा क्यों नहीं मिलनी चाहिए?
बुन्देली टाइम्स की अपील
बुन्देली टाइम्स यह मानता है कि यह खबर केवल एक घटना नहीं है, बल्कि एक व्यवस्था की असफलता है। यह एक ऐसी चुप्पी है जिसे तोड़ना जरूरी है। हमारा उद्देश्य है कि हम उन आवाज़ों को सामने लाएं जो वर्षों से दबा दी गई हैं।
हम प्रशासन और राज्य सरकार से मांग करते हैं कि मुरैया गांव जैसी घटनाएं फिर कभी न दोहराई जाएं। गांव के लोग भी इंसान हैं — उन्हें भी मरने के बाद सम्मानपूर्वक विदाई का हक है।
अंत में…
मुरैया गांव की यह घटना केवल एक शव यात्रा नहीं थी, यह भारत के ग्रामीण विकास मॉडल का आईना थी। जहां शहरों में एयरपोर्ट, स्मार्ट रोड़, हाईवे और चमचमाती लाइट्स की बात होती है, वहीं कुछ किलोमीटर दूर ऐसे गांव भी हैं जहां लोग पॉलिथीन के नीचे अपनों को विदा करते हैं।
अगर यह खबर आपकी संवेदनाओं को छू गई हो, तो इसे जरूर साझा करें — क्योंकि बदलाव वहीं से शुरू होता है जहाँ से सवाल उठते हैं।
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